अगर आपने सम्राट अशोक के शिलालेखों वाला मुख्य लेख पढ़ लिया है तो आपको पता चल गया होगा कि उनके शिलालेखों को 5 भागों में बांटा गया है। पहले प्रकार के शिलालेखों के बारे में जानकारी हम दे चुके हैं और अब दूसरे प्रकार के शिलालेखों के बारे में जानकारी देंगे जिन्हें ‘सम्राट अशोक के लघु शिलालेख’ कहा जाता है।
सम्राट अशोक के लघु शिलालेखों को अंग्रेज़ी में Minor Rock Edicts कहा जाता है।
सम्राट अशोक के लघु शिलालेख क्या हैं?
पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में कई ऐसे छोटे चट्टानी टुकड़े प्राप्त हुए है जिन पर सम्राट अशोक के एक पैरा वाले लेख खुदे हुए हैं। इन चट्टानों पर खुदे हुए इस पैरा को सम्राट अशोक का पहला लघु शिलालेख कहा जाता है।
कई लघु शिलालेख ऐसे मिले हैं जिन पर पहले पैरे के सिवाए दूसरा पैरा भी लिखा हुआ है, इस दूसरे पैरा को सम्राट अशोक का दूसरा लघु शिलालेख कहा जाता है।
दो लघु शिलालेखों के अतिरिक्त राजस्थान के वैराट में एक छोटा पत्थर ऐसा भी मिला है जिस पर पहले दो लेखों से बिलकुल एक अलग लेख लिखा हुआ पाया जाता है। ये लेख सम्राट अशोक का ही है और इसके उनका तीसरा लघुलेख कहा जाता है। (एक बात और ध्यान रखिएगा वैराट में ही एक ऐसा पत्थर भी पाया गया है जिस पर पहला लघु शिलालेख खुदा हुआ है।)
लघु शिलालेखों में पाठ बिलुकल एक जैसा नहीं
जो भी लघु शिलालेखों वाली चट्टानें मिली है उनमें पहले और दूसरे दोनों लेखों के पाठ में काफी अंतर पाया जाता है। इसका अर्थ है कि किसी चट्टान पर खुदे लेख को केवल आधा ही लिखा गया, किसी पर कोई लाइन नहीं जा किसी लाइन को बिलकुल अलग तरीके से लिखा गया है।
नीचे हम आपको सम्राट अशोक के लघु शिलालेखों को तीन भागों में बांटकर समझाएंगे।
1) पहले वो शिलालेख जिन पर केवल पहला लघु शिलालेख लिखा हुआ है।
2) दूसरे वो शिलालेख जिन पर पहले के साथ साथ दूसरा लेख भी लिखा हुआ है।
3) तीसरा एकलौता वैराट का लघु शिलालेख जिस पर तीसरा और एकलौता लघु शिलालेख खुदा हुआ है।
1. सम्राट अशोक का पहला लघु शिलालेख
नीचे रूपनाथ (मध्य प्रदेश) में मिले पहले लघु शिलालेख को लिखा गया है। जो नंबर हम ने लिखे है वो शिलालेख में नही लिखे गए, बल्कि इन्हें इसलिए लिखा गया है तांकि आपको समझा सकें कि बाकी के शिलालेख जिन पर पहला लेख लिखा हुआ है, उनमें इससे क्या फर्क है।
(1) देवताओं के प्रिय ऐसा कहते है कि अढ़ाई वर्ष से ज्यादा समय हो चुका है कि मैं शाक्य (बौद्ध) हो चुका हुँ। (2) मैंने ज्यादा उद्योग नही किया लेकिन जबसे पिछले एक साल से संघ में आया हुँ तब से मैंने पूरी तरह से उद्योग किया है। (3) इसी बीच जम्बूद्वीप (भारत) में जो देवता अब तक मनुष्यों के साथ नहीं मिलते जुलते थे अब वे मेरे द्वारा मनुष्यों से मिल जुल गये हैं। (4) यह उद्योग का फल है और केवल बड़े लोग ही इसे नहीं पा सकते बल्कि छोटे लोग भी अगर उद्योग करें तो भारी स्वर्ग के सुख को पा सकते हैं। (5) ये अनुशासन इसलिए लिखा गया कि छोटे और बड़े उद्योग करें। (6) सीमांत में रहने वाले लोग भी इस अनुशासन को जानें और मेरा यह उद्योग चिरस्थयी रहे। (7) इस विषय का कम से कम डेढ़ गुणा विस्तार होगा। (8) यह अनुशासन अवसर के अनुसार पर्वतों की शिलाओं पर लिखा जाना चाहिए। (9) यहां राज्य में जहां कहीं शिला-स्तम्भ हो वहां शिला-स्तम्भ पर भी लिखा जाना चाहिए। (10) इस अनुशासन के अनुसार जहां तक आप लोगों का अधिकार हो वहां तक आप लोग सर्वत्र अधिकारियों को भेज कर इस का प्रचार करें। (11) यह अनुशासन मैंने उस समय लिखाया जब मैं प्रवास में था और प्रवास के 253 दिन हो चुके थे।
( इस लेख में सम्राट अशोक जिस ‘उद्योग’ के बारे में कह रहे है उसका अर्थ है – मेहनत या पालन करना। इस लेख के अनुसार इसका यह भाव है कि सम्राट बौद्ध धर्म में संघ के नियमों के अनुसार पिछले एक साल रहे थे और उसके नियमों और शिक्षाओं का पालन कर रहे थे। इन्हीं नियमों और शिक्षाओं के पालन को लेख में अनुशासन कहा गया है। )
सहसाराम (बिहार) का लघु शिलालेख – सहसाराम में पाए गए लघु शिलालेख में 10वीं लाइन नहीं है।
गुजर्रा (मध्य प्रदेश) – गुर्जरा लघु शिलालेख की 4 नंबर लाइन थोड़े अलग तरीके से लिखी गई है। 8वीं और 10वीं लाइन मौजूद नहीं। 4 नंबर लाइन में कुछ बढ़ोतरी है जो नीचे Mark में दिखाई गई है।
“यह उद्योग का फल है और केवल बड़े लोग ही इसे नहीं पा सकते बल्कि छोटे लोग भी अगर उद्योग करें, धर्म के अनुसार आचरण करें तथा प्राणिओं के साथ अहिंसा का व्यवहार करें, तो भारी स्वर्ग के सुख को पा सकते हैं।”
मास्की (कर्नाटक) – ऊपर वाला गुजर्रा का और ये मास्की वाला लघु शिलालेख सम्राट अशोक के सभी प्रकार के शिलालेखों में मात्र ही ऐसे दो शिलालेख है जिन पर उनका नाम अशोक लिखा हुआ है। बाकी सभी में उनका नाम देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ही पाया गया है।
मास्की शिलालेख में 5वीं से 11 तक की लाइन नहीं लिखी हुई नहीं मिलती और 4 थी लाइन भी थोड़ी सी अलग है जो कि इस प्रकार से है-
“छोटे लोग और बड़े लोग सबों से यह कहना चाहिए कि यदि आप इस प्रकार करेंगे तो यह कल्याणकारी होगा और चिरस्थायी रहेगा तथया इसका विस्तार होगा, कम से कम डेढ़ गुणा विस्तार होगा।”
गवीमठ (कर्नाटक) – 8वीं, 9वीं, 10वीं और 11वीं लाइन मौजूद नहीं।
पाल्कीगुण्डू (कर्नाटक) – 8वीं, 9वीं, 10वीं और 11वीं लाइन मौजूद नहीं। इसके सिवाए इस लेख के बहुत भाग टुटे हुए हैं।
2. सम्राट अशोक का दूसरा लघु शिलालेख
अब हम आपको उन शिलालेखों के बारे में बताएंगे जिन पर पहले के साथ साथ दूसरा लेख भी लिखा हुआ है।
पहले हमने रूपनाथ के शिलालेख को आधार बनाया था अब ब्रह्मगिरि के शिलालेख को आधार बनाएंगे। ब्रह्मगिरि कर्नाटक राज्य में है।
ब्रह्मगिरि लघु शिलालेख में नंबर 1 लाइन को थोड़ा विस्तार दिया गया है। 8, 9 और 10 नंबर लाइन नहीं है तथा एक बिलकुल नया पैरा है जिसे ऍदूसरा लघु शिलालेखऍऍ कहा जाता है। हम इसे 12वीं लाइन से शुरू करेंगे।
पहले बता दें कि पहली लाइन किस तरह से है –
“(1) सुवर्णगिरि से आर्यपुत्र (राज कुमार) और महामात्रों की ओर से इसिला के महामात्रों को आरोग्य की शुभकामना कहना और यह सूचित करना कि देवताओं के प्रिय आज्ञा देते हैं कि अढ़ाई वर्ष से अधिक हुए कि मैं उपासक हुआ।”
(इस शिलालेख से पता चलता है कि यह शिलालेख इसिला (वर्तमान सिद्दपुर, कर्नाटक) के महामात्रों को, सुवर्ण गिरि (कनकगिरि, कर्नाटक) में स्थित आर्यपुत्र (जो शायद राज-प्रतिनिधि के रूप में अशोक के पुत्रों में से कोई था) और वहां के महामात्रों की ओर से संबोधित किया गया था।)
ब्रह्मगिरि में नया पैरा जा दूसरा शिलालेख इस तरह से है-
“(12) और देवताओं के प्रिय ऐसा कहते हैं – माता पिता की सेवा करनी चाहिए, इसी प्रकार गुरुओं की भी सेवा करनी चाहिए, प्राणियों के प्रति दया दृढ़ता के साथ दिखानी चाहिए, सत्य बोलना चाहिए, धर्म के इन गुणों को आचरण में लाना चाहिए। (13) इसी प्रकार शिष्य को आचार्य का आदर करना चाहिए और अपने जाति भाइयों के प्रति उचित बर्ताव करना चाहिए। यही प्राचीन धर्म की रीति है। इससे आयु बढ़ती है। इसी के अनुसार मनुष्य को चलना चाहिए। (14) चपड़ नामक लिपिकार ने ये लेख चट्टान पर लिखा।”
(ऊपर ‘प्राचीन धर्म की रीति’ का अर्थ है जो अच्छाइयां पहले के हिंदुओं में थी। इसके सिवाए इस शिलालेख पर उस लिपिकार का नाम भी लिखा है जिसने इसे खोदा था।)
सिद्धपुर (कर्नाटक) – ये भी ब्रह्मगिरि के शिलालेख की तरह ही है, बस इसके कुछ भाग अब टूट चुके हैं।
जटिंग रामेश्वर (कर्नाटक) – ये भी ब्रह्मगिरि के शिलालेख की तरह ही है, बस इसके कुछ भाग अब टूट चुके हैं।
येर्रागुडी और राजुल – मन्दगिरि के लघु शिलालेख
इन दोनों लघु शिलालेखों में पहला पैरा तो रूपनाथ के लघु शिलालेख की तरह ही है, लेकिन दूसरा वाला ब्रह्मगिरि वाले से थोड़ा अलग है, जो कि इस तरह से है-
“देवताओं के प्रिय ऐसा कहते हैं – राजा की आज्ञा के अनुसार आपको चलना चाहिए। आज लोग ‘रज्जुक’ नामक कर्मचारियों को आदेश देंगे और रज्जुक लोग ग्रामवासियों तथा ‘राष्ट्रिक’ नामक कर्मचारियों को आदेश देंगे – ‘माता पिता की सेवा करनी चाहिए, प्राणियों पर दया करनी चाहिए, सत्य बोलना चाहिए, धर्म के इन गुणों का उपदेश देना चाहिए।’ इसी प्रकार आप लोग देवताओं के प्रिय के कहने के अनुसार गजवाहकों, लेखकों, अश्ववाहकों और ब्राह्मणों के आचार्यों को आज्ञा देवें कि वे अपने अपने शिष्यों को प्राचीन रीति के अनुसार शिक्षा देवें। इस आदेश का पालन होना चाहिए। आचार्य की प्रतिष्ठा इसी में है। इसी प्रकार के आचरण की परिपाटी आचार्य के कुटम्ब के पुरूष व्यक्तियों द्वारा स्त्री व्यक्तियों में भी स्थापित करनी चाहिए। आचार्य को शिष्यों के प्रति उचित व्यवहार करना चाहिए, जैसा कि पुरानी रीति है। इसी प्रकार आप लोग अपने शिष्यों को उपदेश दें जिससे कि इस धर्म के सिद्धांत की उन्नति और वृद्धि हो। ये देवताओं के प्रिय का आदेश है।”
3. सम्राट अशोक का तीसरा लघु शिलालेख
कलकत्ता-वैराट का लघु शिलालेख
वैराट में जो पहला लघु शिलालेख पाया जाता है उसके सिवाए एक और भी लघु शिलालेख पाया जाता है, जिसे तीसरा लघु शिलालेख कहते हैं। जिस पत्थर पर यह तीसरा लघु शिलालेख खुदा हुआ है वो कलकत्ता की एशियाटिक सोसायटी में सुरक्षित है।
इसे कलकत्ता-वैराट का लघु शिलालेख इसलिए कहते है क्योंकि यह पहले वैराट में था लेकिन अब कलकत्ता में है।
पहला और दूसरा लघु शिलालेख सम्राट अशोक के द्वारा अपने महामात्रों को संबोधित करके लिखवाये गये हैं, परंतु तीसरा लघु शिलालेख भिक्षुओं को संबोधित करके लिखा गया है। इस धर्मलेख की शैली अशोक के अन्य धर्मलेखों की शैली से अलग है।
लेख इस तरह से है-
मगध के राजा प्रियदर्शी संघ को अभिवादन-पूर्वक कहते हैं और आशा करते हैं कि वो सब सुखी होंगे। भदन्तगणों (संघ के सदस्यो) आपको पता है कि बुद्ध, धर्म और संघ में हमारी कितनी भक्ति और श्रद्धा है। भगवान बुद्ध ने जो कुछ कहा वो सब अच्छा कहा है। अगर हमें इस धर्म को चिरस्थायी रखना है तो आपको इन ग्रंथो को बार-बार पढ़ना और सुनना होगा और मान में धारण करना होगा। ये धर्मग्रंथ इस प्रकार से हैं – विनय समुत्कर्ष (विनय का महत्व), अलियवसाणि (आर्य जीवन), अनागतभयानि (आने वाला भय), मुनिगाथा (मुनियों का गान), मौनेय सूत्र (अर्थात् मुनियों के संबंध में उपदेश), उपति-सपसिने (उपतिष्य का प्रश्न), लाघुलोवादे (राहुल को उपदेश)। अगर हो सके तो उपासक और उपासिकाएं भी इन धर्म ग्रंथों को सुनें और धारण करें। भदन्तगणों मैं इन लेखों को इसलिए लिखवाता हुँ ताकि लोग मेरा अभिप्राय जानें।
Note : हमने सम्राट अशोक के सभी लघु शिलालेख को लिखने के लिए विकीपीड़िया, प्राचीन भारत के इतिहास पर कुछ किताबों, Katinkahesselink.net वेबसाइट और सबसे महत्वूर्ण 1962 में छपी ‘अशोक के धर्मलेख’ पुस्तक की सहायता ली है। सम्राट अशोक के शिलालेखों वाली बाकी पोस्टें जरूर पढ़ें।
sadhana says
बहुत ही अच्छी जानकारी दी.
Shivam Kumar says
Sahil Ji.. Kya aap chahte h ki aayodha me ram mandir bane… Agar ha to jaagoindian. com me Jaye or ram bagvan ko adhik se adhik vote kare & share kare taki hamari ram janam bhumi me sirf ram bagvan ka hi vas ho… Jay hind.. Jay shri ram